
सरकार के खोखले नारे बनाम बच्चों की दर्दनाक हकीकत – कौन देगा जवाब?
रायगढ़/ धरमजयगढ़। विकासखंड धरमजयगढ़ का आदिवासी आश्रम, जहां बच्चों के सपनों को परवान चढ़ना चाहिए था, वहां टपकती छतें, भीगे गद्दे और बदबूदार कमरे मासूमों के भविष्य का गला घोंट रहे हैं। कुमरता गांव का यह आश्रम किसी शिक्षा केंद्र से ज्यादा एक खंडहर और जेल जैसा नजर आता है।
आश्रम में रह रहे 25 बच्चे मजबूरी में इन हालातों को झेल रहे हैं। बरसात में छत से पानी टपकता है, कमरे दलदल में बदल जाते हैं, बच्चे रातभर जागकर किसी कोने में खड़े-खड़े नींद पूरी करते हैं। गद्दे, किताबें और कपड़े सब भीग जाते हैं। अंदर गंदगी, कचरा और बदबू का आलम ऐसा है कि बीमारी हर वक्त दरवाजे पर खड़ी लगती है।
जिम्मेदार कौन?
आश्रम अधीक्षक क्रीतराम नागवंशी – जिन पर बच्चों की देखरेख की जिम्मेदारी है – खुद प्राथमिक शाला पढ़ाने चले जाते हैं। और जब फोन किया गया तो कॉल तक रिसीव करने की जहमत नहीं उठाई। यह केवल लापरवाही नहीं, बल्कि अपराध है। यह उन मासूम बच्चों के जीवन से किया गया खुला खिलवाड़ है, जिन्हें बेहतर शिक्षा और सुरक्षित आश्रय का वादा किया गया था।
सरकार की खोखली बातें
एक तरफ सरकार “स्वच्छ भारत, निरोग भारत, सबके लिए शिक्षा” के नारे गढ़ती है, अरबों-खरबों के बजट बताती है। लेकिन दूसरी तरफ कुमरता आश्रम जैसे हालात सरकार की असली सच्चाई को नंगा कर देते हैं। यह केवल एक आश्रम की कहानी नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की नाकामी का आईना है।
सवाल जो चुभते हैं
क्या आदिवासी बच्चों का भविष्य किसी को दिखाई नहीं देता?
बच्चों की किताबें भीग जाएं, तो क्या उनकी ज़िंदगी भी भीगकर बह जानी चाहिए?
घोषणाओं और नारों के बीच मासूमों की नींद, उनकी पढ़ाई, उनका स्वास्थ्य आखिर किसकी जिम्मेदारी है?

यह खबर केवल गंदगी, टपकती छत या लापरवाह अधीक्षक की नहीं, बल्कि उस सड़े-गले प्रशासनिक तंत्र की है, जिसने बच्चों के सपनों को सीलन और गंदगी में दफन कर दिया है।